धुंधले बिलों की ‘चमक’ में डूबा सिस्टम
अफसरों की आंखों पर पारदर्शिता की पट्टी
केके रिपोर्टर की कलम कहती हैं, जब सिस्टम ही आंख मूंद ले, तो भ्रष्टाचार को कौन रोक सकता है? पंचायत पोर्टल पारदर्शिता के लिए बना था, पर यहां तो पारदर्शिता की पोस्टमार्टम रिपोर्ट तैयार हो चुकी है। मूल्यांकनकर्ता बिना जांच किए भुगतान की अनुमति दे रहे हैं — जैसे शासन का पैसा उनका खानदानी हक हो! सवाल उठता है कि जब बिल पढ़े बिना साइन हो रहे हैं, तो क्या अफसरों की आंखों पर भी “धुंधले चश्मे” चढ़े हैं?
सिलवानी जनपद की सीईओ पर तो मानो “प्रभार का बोझ” नहीं, बल्कि “लापरवाही का ताज” सजा है। बेगमगंज का अतिरिक्त प्रभार भी इनके पास है, लेकिन कार्रवाही? ज़ीरो! हर बार वही पुराना डायलॉग — “जांच दल बनाया जाएगा।” अब जनता पूछ रही है — कब बनेगा, कहाँ जाएगा और क्या लौटकर आएगा? फाइलें बनती हैं, फिर गायब हो जाती हैं। शायद किसी “धुंधले ड्राफ्ट” में दबकर रह जाती होंगी।
वर्धा पंचायत में तो खेल खुल्लम-खुल्ला है — सीमेंट की दुकान से स्टेशनरी की खरीदी, दो नंबर बिल, और तीन नंबर भुगतान। काम का अता-पता नहीं, लेकिन बिल की एंट्री पूरी! ऊपर से अधिकारी ऐसे चुप हैं जैसे उन्हें सब पता हो, बस बोलने की मनाही हो। केके रिपोर्टर की कलम कहती हैं, जब जिम्मेदार ही बेखबर बन जाएं, तो बेईमानों की बेतकल्लुफी बढ़ जाती है।
प्रदेश सरकार पारदर्शिता की बात करती है, मगर ज़मीनी हकीकत में पोर्टल अब भ्रष्टाचार का नया मंच बन चुका है — जहाँ “काम” कम और “कारनामे” ज़्यादा अपलोड हो रहे हैं। जनता चाहती है जवाब, लेकिन अफसरों के पास सिर्फ़ सन्नाटा है।
केके रिपोर्टर की कलम कहती हैं —
"धुंधले बिलों की यह कहानी, अफसरों की नादानी नहीं, मिलीभगत की निशानी है! जब पोर्टल पर भी सच छुपाया जाए, तो समझ लीजिए — सिस्टम नहीं, नीयत धुंधली हो चुकी है..."

