"हाकिमों से क्या पर्दा, अब तो गली-गली चर्चा है..." केके रिपोर्टर की कलम से निकला ये किस्सा उस "विकासशील" विचारधारा की गोद में पले उस मंडल की कहानी है, जहां उम्र के कांटे घड़ी की सुई से नहीं, फॉर्म के कालम में पेन से तय होते हैं! सिलवानी भाजपा मंडल अध्यक्ष श्याम साहू जी ने लोकतंत्र के पवित्र मंच को इतनी बेशर्मी से मोड़ा कि उम्र की सीमा की लकीर को ही पेंसिल समझ लिया—इधर मिटाया, उधर बढ़ाया! समग्र पोर्टल पर 1976, मार्कशीट में 1979 और पद की शर्त है 45 की उम्र... अब बताइए, ये राजनीति है या चमत्कारी गणित का तंत्र? पार्टी के संविधान में साफ है कि मंडल अध्यक्ष की अधिकतम उम्र 45 वर्ष होनी चाहिए, लेकिन साहब का हौंसला देखिए—न उम्र की शर्म, न दस्तावेज़ों की गरिमा! और जब संगठन महामंत्री हितानंद शर्मा भोपाल में युवा मोर्चा की बैठक में कह रहे थे कि "फर्जी मार्कशीट और आधार कार्ड से उम्र कम करने वालों की पोल खुलेगी", तब शायद सिलवानी के ये श्याम जी साहब ठहाका लगाकर कह रहे थे – "पहले पकड़ो तो सही!" हद तो तब हो गई जब बगल की तहसील से एक ऐसी स्कूल की मार्कशीट जुगाड़ ली गई। श्याम साहू जी ने फर्जी मार्कशीट कहां से मंगाई, यह खुलासा तो अगली किस्त में होगा — लेकिन जो अभी सामने है, वो ये कि पार्टी के नियम किसी कागज़ के झोंके से ज्यादा वजनदार नहीं दिख रहे। मंडल की कुर्सी के लिए अगर उम्र घटाना पड़ जाए तो समझ लीजिए कि ‘सेवा’ की नहीं, ‘सेटिंग’ की राजनीति चल रही है। अब सवाल है – क्या ये पद प्रेम है या पहचान की भूख, कि जिसके लिए उम्र का कायाकल्प करना पड़ जाए? क्या पार्टी को भी अब खुद से ये पूछना चाहिए कि वो कितने झूठ पर खड़ी है? जिस विचारधारा ने चाय बेचने वाले को प्रधानमंत्री बनाया, क्या उसी विचारधारा का दम अब इस तरह के फर्जी दस्तावेज़ों से कमजोर हो रहा है? ये लोकतंत्र है साहब, यहां वोट से सरकार बनती है लेकिन भरोसे से पार्टी टिकती है... और श्याम साहू जैसे फर्जी नेताओं से भरोसा टूटता है! और अब ज़रा कान खोलकर सुनिए—फर्जी दस्तावेज बनाना सिर्फ अनैतिक नहीं, भारतीय दंड संहिता की धारा 420, 468, 471 के तहत सीधा अपराध है! फर्जी मार्कशीट बनवाना और उसे उपयोग करना, दोनों ही सजा के योग्य हैं। अब सवाल ये है कि क्या भाजपा संगठन केवल मौखिक आदर्शों का पिटारा है या वो सच में कार्रवाई करने की हिम्मत रखती है? वैसे भाजपा कहती है कि हर तीसरे साल चुनाव होता है, लेकिन अगर इसी तरह उम्र के नाम पर जालसाजी चलती रही, तो फिर अगला नारा होगा – "चलो जुगाड़ से बनाएं पदाधिकारी!" केके रिपोर्टर की कलम पूछती है—"ऐ संगठन वालों! ये दस्तावेज़ों का धंधा कब बंद होगा?" और एक मशहूर शायर का शेर अर्ज़ है – "काग़ज़ों की उम्र में, सियासत जवां हो गई,हक़ीक़त बूढ़ी रह गई, लेकिन कुर्सी जवां हो गई!"अब पार्टी की चुप्पी ज्यादा दिन टिकेगी नहीं, क्योंकि स्याही चाहे जितनी भी गाढ़ी हो, असली उम्र कभी छिपती नहीं... और जब राहत इंदौरी ने कहा था – 'अब तो गली-गली चर्चा है', तो उन्होंने शायद सिलवानी के मंडल की ही बात की थी। "फरेब जितना भी होशियारी से किया जाए, कभी ना कभी वो चेहरा सामने आ ही जाता है!" केके रिपोर्टर की कलम पूछती है – मण्डल अध्यक्ष साहू जी खुलकर अंकसूची सार्वजनिक करें। साफ-साफ बताएं कि उनका जन्म 1976 में हुआ या 1979 में? ये लोकतंत्र है साहब, कोई फैमिली WhatsApp ग्रुप नहीं जहां जो जिसे मनमर्जी से जोड़ लो,फिर बाद में हटा दो! तो संगठन महामंत्री जी, अब चुप रहना भी गुनाह होगा... क्योंकि कलम चल चुकी है,और सवाल है – क्या अब भी पार्टी के लिए उसकी साख ज़्यादा अहम है या श्याम साहू जैसे आंकड़ों के बाज़ीगर? और अंत में हम पत्रकार हैं साहब, कोई निजी रंजिश नहीं, पर जब दस्तावेज़ चीखें और नियम सिसकें, तो कलम खामोश नहीं रह सकती। इस मामले ने यह साबित कर दिया है कि भाजपा की असली समस्या विरोधियों की नहीं, भीतर के फर्जी नायकों की है।
जुगाड़ से बनी जवानी,असली उम्र गई तेल लेने,श्याम साहू बने मंडल के सरताज, फर्जी मार्कशीट का चमत्कार!
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July 31, 2025
"हाकिमों से क्या पर्दा, अब तो गली-गली चर्चा है..." केके रिपोर्टर की कलम से निकला ये किस्सा उस "विकासशील" विचारधारा की गोद में पले उस मंडल की कहानी है, जहां उम्र के कांटे घड़ी की सुई से नहीं, फॉर्म के कालम में पेन से तय होते हैं! सिलवानी भाजपा मंडल अध्यक्ष श्याम साहू जी ने लोकतंत्र के पवित्र मंच को इतनी बेशर्मी से मोड़ा कि उम्र की सीमा की लकीर को ही पेंसिल समझ लिया—इधर मिटाया, उधर बढ़ाया! समग्र पोर्टल पर 1976, मार्कशीट में 1979 और पद की शर्त है 45 की उम्र... अब बताइए, ये राजनीति है या चमत्कारी गणित का तंत्र? पार्टी के संविधान में साफ है कि मंडल अध्यक्ष की अधिकतम उम्र 45 वर्ष होनी चाहिए, लेकिन साहब का हौंसला देखिए—न उम्र की शर्म, न दस्तावेज़ों की गरिमा! और जब संगठन महामंत्री हितानंद शर्मा भोपाल में युवा मोर्चा की बैठक में कह रहे थे कि "फर्जी मार्कशीट और आधार कार्ड से उम्र कम करने वालों की पोल खुलेगी", तब शायद सिलवानी के ये श्याम जी साहब ठहाका लगाकर कह रहे थे – "पहले पकड़ो तो सही!" हद तो तब हो गई जब बगल की तहसील से एक ऐसी स्कूल की मार्कशीट जुगाड़ ली गई। श्याम साहू जी ने फर्जी मार्कशीट कहां से मंगाई, यह खुलासा तो अगली किस्त में होगा — लेकिन जो अभी सामने है, वो ये कि पार्टी के नियम किसी कागज़ के झोंके से ज्यादा वजनदार नहीं दिख रहे। मंडल की कुर्सी के लिए अगर उम्र घटाना पड़ जाए तो समझ लीजिए कि ‘सेवा’ की नहीं, ‘सेटिंग’ की राजनीति चल रही है। अब सवाल है – क्या ये पद प्रेम है या पहचान की भूख, कि जिसके लिए उम्र का कायाकल्प करना पड़ जाए? क्या पार्टी को भी अब खुद से ये पूछना चाहिए कि वो कितने झूठ पर खड़ी है? जिस विचारधारा ने चाय बेचने वाले को प्रधानमंत्री बनाया, क्या उसी विचारधारा का दम अब इस तरह के फर्जी दस्तावेज़ों से कमजोर हो रहा है? ये लोकतंत्र है साहब, यहां वोट से सरकार बनती है लेकिन भरोसे से पार्टी टिकती है... और श्याम साहू जैसे फर्जी नेताओं से भरोसा टूटता है! और अब ज़रा कान खोलकर सुनिए—फर्जी दस्तावेज बनाना सिर्फ अनैतिक नहीं, भारतीय दंड संहिता की धारा 420, 468, 471 के तहत सीधा अपराध है! फर्जी मार्कशीट बनवाना और उसे उपयोग करना, दोनों ही सजा के योग्य हैं। अब सवाल ये है कि क्या भाजपा संगठन केवल मौखिक आदर्शों का पिटारा है या वो सच में कार्रवाई करने की हिम्मत रखती है? वैसे भाजपा कहती है कि हर तीसरे साल चुनाव होता है, लेकिन अगर इसी तरह उम्र के नाम पर जालसाजी चलती रही, तो फिर अगला नारा होगा – "चलो जुगाड़ से बनाएं पदाधिकारी!" केके रिपोर्टर की कलम पूछती है—"ऐ संगठन वालों! ये दस्तावेज़ों का धंधा कब बंद होगा?" और एक मशहूर शायर का शेर अर्ज़ है – "काग़ज़ों की उम्र में, सियासत जवां हो गई,हक़ीक़त बूढ़ी रह गई, लेकिन कुर्सी जवां हो गई!"अब पार्टी की चुप्पी ज्यादा दिन टिकेगी नहीं, क्योंकि स्याही चाहे जितनी भी गाढ़ी हो, असली उम्र कभी छिपती नहीं... और जब राहत इंदौरी ने कहा था – 'अब तो गली-गली चर्चा है', तो उन्होंने शायद सिलवानी के मंडल की ही बात की थी। "फरेब जितना भी होशियारी से किया जाए, कभी ना कभी वो चेहरा सामने आ ही जाता है!" केके रिपोर्टर की कलम पूछती है – मण्डल अध्यक्ष साहू जी खुलकर अंकसूची सार्वजनिक करें। साफ-साफ बताएं कि उनका जन्म 1976 में हुआ या 1979 में? ये लोकतंत्र है साहब, कोई फैमिली WhatsApp ग्रुप नहीं जहां जो जिसे मनमर्जी से जोड़ लो,फिर बाद में हटा दो! तो संगठन महामंत्री जी, अब चुप रहना भी गुनाह होगा... क्योंकि कलम चल चुकी है,और सवाल है – क्या अब भी पार्टी के लिए उसकी साख ज़्यादा अहम है या श्याम साहू जैसे आंकड़ों के बाज़ीगर? और अंत में हम पत्रकार हैं साहब, कोई निजी रंजिश नहीं, पर जब दस्तावेज़ चीखें और नियम सिसकें, तो कलम खामोश नहीं रह सकती। इस मामले ने यह साबित कर दिया है कि भाजपा की असली समस्या विरोधियों की नहीं, भीतर के फर्जी नायकों की है।