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17 महीने का सूना सिंहासन! रायसेन कांग्रेस की कुर्सी पर सरदार की ताजपोशी कब तक?

 किसी शायर ने कहा है — "तिनके-तिनके की ख़बर रखते हैं परिंदे आसमां में, और यहां ज़मीन की सियासत में नेताओं को घर की सुध नहीं!" रायसेन ज़िला कांग्रेस की यही हालत है — संगठन है लेकिन सरदार नहीं, कुर्सी है लेकिन कंधा नहीं! 17 महीने बीत गए, कांग्रेस संगठन बिना कप्तान के राजनीति के समुंदर में भटकती कश्ती बन चुका है। लोकसभा चुनाव के दौरान जब सिलवानी विधायक देवेंद्र पटेल ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया, तब शायद किसी ने नहीं सोचा था कि संगठन इतने लंबे समय तक "मल्लाह विहीन नाव" की तरह तैरता रहेगा। ज़िला मुख्यालय का हाल तो ऐसा है जैसे शादी का मंडप हो, लेकिन दूल्हा गायब! देवेंद्र पटेल, जो कभी खुद इस कुर्सी पर थे, आज भी सबसे ज़्यादा सक्रिय हैं। उनकी मौजूदगी किसी लाइफ़ सपोर्ट सिस्टम की तरह है, वरना कांग्रेस कब की "कोमा" में चली जाती। अब असली मुद्दे पर आते हैं.... अध्यक्ष पद की रेस में अनुभवी पूर्व विधायक देवेंद्र पटेल गडरवास, राजेंद्र तोमर वही ऊर्जावान राजा धर्मवीर सिंह,महेंद्र गोस्वामी, चौधरी भूपेंद्र सिंह, शाहिद अंसारी सहित कई नाम उछल रहे हैं, जैसे कढ़ाही में तेल गरम है और पापड़ एक-एक कर फड़फड़ा रहे हों! लेकिन सवाल ये है कि इनमें से कौन पकने लायक है और कौन सिर्फ जलने लायक? राजस्थान से आए पर्यवेक्षक ने चारों विधानसभा क्षेत्रों में कार्यकर्ताओं की नब्ज़ टटोली और जाते-जाते एक वाक्य छोड़ गए — "इस बार ताज उसी को मिलेगा, जिसकी नज़र सिंहासन पर नहीं, संगठन पर हो!" मगर सच्चाई ये है कि यहां निष्ठा का मतलब अब आलाकमान के इशारों पर गर्दन हिलाना हो गया है। "संगठन की भैंस, जिसे चाहे सौंप दो… सवाल ये नहीं कौन दुहेगा, सवाल ये है किसे घी मिलेगा!" तो जनाब, केके रिपोर्टर पूछता है कि क्या कांग्रेस आलाकमान किसी ज़मीन से जुड़े सिपाही को चुनेगा या फिर वही होगा जो अक्सर होता है — नज़दीकियों का फायदा और जमीनी सच्चाईयों की अनदेखी? अंत में सिर्फ इतना कहेंगे— “जिन्हें सौंपा था सफ़र का जिम्मा, वही हर मोड़ पर ख़ामोश निकले…” रायसेन ज़िला कांग्रेस आज एक ऐसे चौराहे पर खड़ी है जहाँ नेतृत्व की तलाश, निष्ठा की परिभाषा और संगठन की दशा—तीनों सवालों के घेरे में हैं। 17 महीने का सन्नाटा इस बात का सबूत है कि कुर्सियों की दौड़ में कार्यकर्ता कहीं पीछे छूट गया है। अब जब कांग्रेस नए अध्यक्ष की तलाश में है, तो देखना होगा कि आलाकमान से “निर्णय” आएगा या सिर्फ “निर्देश”? वरना फिर कोई यही कहेगा— "ताजमहल बन गया, लेकिन मुमताज़ ही ग़ायब थी!" केके रिपोर्टर की कलम से — सवाल वही, जवाब की उम्मीद बाकी है!




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